नाटक की उत्पत्ति, विकास एवं विशेषताएं

 


नाटक
(काव्येषु नाटकं रम्यम्)


1. नाटक का महत्व―


सर्वप्रथम भरत मुनि (दूसरी शताब्दी ई. पु) ने अपने आदि ग्रंथ नाट्य-शास्त्र में 36 अध्यायों में नाट्य-शास्त्र का प्रामाणिक और विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है। नाट्यशास्त्र का महत्त्व बताते हर उनका कथन है कि विश्व का ऐसा कोई ज्ञान, शिल्प, विद्यालय, योग और कर्म नहीं है, जो इसमें न आ जाता हो।


न तज्ज्ञानं न तच्चिल्यं न सा विद्या न सा कला। 

नासौ योगो न तत्कर्म नाट्य अस्मिन यत्र दृश्यते |॥


संस्कृत के काव्यशास्त्र में काव्य को दो भागों में विभक्त किया गया है―


1. दृश्य


2. श्रव्य

दृश्यश्रव्यत्वभेदेन पुनः काव्य द्विधामतम्। 

दृश्यं तताभिनेयम् तद्ररतद्ररूपारोपात्तु रूपकम् ।।


दृश्य काव्य में रुपकों (नाटकों) तथा उपरूपक का ग्रहण होता है क्योंकि इनका अभिनय किया जाता है । नाटक के लिए संस्कृत में पारिभाषिक शब्द रूपक है।

रूपक के ही 10 भेद में से एक भेद नाटक है । रूपक के 10 भेद हैं। उपरूपक के 18| 10 रूपकों के नाम हैं ―

1. नाटक 2. प्रकरण 3. भाण 4. व्यायोग 5. समवकार 6. डिम 7. ईहामृग 8. अंक 9. वीथी 10. प्रहसन।


नाटकमथ प्रकरणमं भाणव्यायोग समवकारडिमा:। 

ईहामृगांकवीथ्यः प्रहसनमिति रूपकाणि दश।। 


नाटकों में श्रव्यकाव्यों की अपेक्षा हृदयगाहिता, मनोरंजकता, दृश्य काव्य आकर्षकता , भावाभिव्यंजकता और विषय की विविधता अधिक होती है, अत : श्रव्यकाव्य की अपेक्षा दृश्य काव्य अधिक जन-प्रिय होता है। इसीलिए कहा गया है - काव्येषु नाटकं रम्यं।


भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में नाटक के महत्त्व का विस्तार से प्रतिपादन किया है। उनका कथन है कि - इसमें वेतल धर्म और देवों की ही चर्चा नहीं होती | अपितु विश्व की समस्त भावनाओं का प्रदर्शन किया जाता है । इसमें जीवन की सभी घटनाओं का चित्रण होता है जैसे - धर्म मनोरंजन हास्य युद्ध शृंगार श्रम आदि।


2. संस्कृत नाटकों की उत्पत्ति 

(क) भारतीय परम्परा―

                              भारतीय नाट्य शास्त्र की उत्पत्ति की विवेचना करते हुए महामुनि भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में उल्लेख किया है कि सम्पूर्ण देवताओं ने ब्रह्मा से प्रार्थना की कि हमें ऐसे मनोरंजन की वस्तु दीजिए जो दृश्य और भव्य दोनों हो , जिसको चारों वर्णों के व्यक्ति समान रूप से अपना सके। उनकी प्रार्थना पर ब्रह्मा ने चारों वेदों से सार भाग लेकर पंचम वेद 'नाट्य वेद' की रचना की। उन्होने ऋग्वेद से पाठ्य (संवाद , कथोपकथन), सामवेद से संगीत यजुर्वेद से अभिनय.तथा अथर्व से रस के तत्वों को लिया।


तस्मात् सृजापरं वेदं पञ्चमं सार्ववर्णिकम् ॥ 

एवं संकल्प्य भगवान् सर्ववेदान अनुस्मरन् । 

नाट्यवेदं ततश्चक्रे चतुर्वेदान्गसंभवम् ।।


(ख) ऋक् संवाद - सूक्तवाद

                                     इस वाद के प्रवर्तकों में अधिकांश पाश्चात्य विद्वान हैं। इनमें प्रो० मैक्समूलर,  प्रो. सिल्वाँ लेवी प्रो. फॉन और डा. हार्टले मुख्य हैं । इनका विचार भारतीय परम्परा से बहुत कुछ मिलता है।


(ग) मृतात्म श्राद्धवाद -

                            प्रो. रिजवे ने यह मत प्रस्तुत किया है कि विश्व की सभी संस्कृतियों में मृतात्माओं के प्रति श्रद्धा प्रकट की परम्परा है। 

(घ) पर्ववाद - 

                पाश्चात्य विद्वानों से यह मत भी प्रस्तुत किया है कि जिस प्रकार यूरोप में मे-पोल का पर्व अभिनय - प्रधान ढंग से मनाया जाता है, उसी प्रकार प्राचीन समय में इन्द्रध्वज उत्सव पर अभिनय आदि होते थे।


(ड़) रासलीलावाद - 

                         एक मत यह भी प्रस्तुत किया गया है कि कृष्ण की रासलीला तया कृष्ण - भक्ति के सम्बन्ध में आयोजित रासलीला को नाटक का आदि रुप मानना चाहिए।


(च) स्वांगवाद -

                    प्रो. हिल ब्रांड और स्टेन कोनो का मत है कि लोकप्रिय स्वागों से नाटकों की उत्पत्ति हुई है।


(छ) पुत्तलिका- नृत्यवाद 

                                 डॉ फिशेल ने यह विचार प्रस्तुत किया है कि प्राचीन समय में कठपुतली का नाच प्रचलित था। उसका ही विकसित रूप नाटक हुआ।


(ज) छाया-नाटकवाद 

                           प्रो. ल्युदर्श और स्पेन कोनो ने यह मत प्रस्तुत किया है कि छाया नाटकों में जो छाया चित्रों का प्रदर्शन किया जाता है, उससे नाटकों की उत्पति हुई।


3. संस्कृत - नाटकों का विकास 


पाश्चात्य विद्वान भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि नाटकों का प्रारम्भ सर्वप्रथम भारतवर्ष में हुआ । प्रो. मैक्समूलर , पिशेल, लेवी , मैकडानल आदि ने इस मन्तव्य को स्थिर किया है। 


रामायण और महाभारत-काल

रामायण और महाभारत के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उस समय नाटक प्रचलित हो चुके और नाटकों के विकास का क्रम प्रगति पर धा। नाटकों में रस-परिपाक पर भी पूरा ध्यान दिया जाता था । शैलूष और उनकी स्त्रियों के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि अभिनेता और अभिनेत्री भी थीं। हास्य-रस वाले नाटक भी खेले जाते थे । वाल्मीकि - रामायण के निम्नलिखित श्लोकों में नाटक ,नट नर्तकी आदि का स्पष्ट उल्लेख है।


(क) रसै: श्रृंगारकरुणहास्यरौद्रभयानकै:।

  वीरादिभी रसैर्युक्तं काव्यमेतदगायताम् ।।

(ख) नाराजके जनपदे प्रकृष्टनटनर्तकाः।।

 (ग) शैलूषाश्च तथा स्त्रीभिर्यान्ति.... ।


महाभारत के हरिवंश पर्व में उल्लेख मिलता है कि वज्रनाभ नामक राक्षस की नगरी में रामायण और कौबेररम्भाभिसार नामक नाटक खेले गए थे।


पाणिनि और पतंजलि

                         पाणिनि का समय ईसा से चौथी शताब्दी पूर्व माना जाता है। पाणिनि ने अपने सूत्रों में दो नटसूत्रों अर्थात नाट्यशास्त्रों का उल्लेख किया है। एक नाट्यशास्त्र के रचयिता शिलालिन थे और दूसरे के कृशाश्व।


कर्मन्दकृशाश्वादिनिः।


पाणिनि ने केवल अष्टाध्यायी की ही रचना नहीं की थी, अपितु जाम्बवती जय (पाताल -विजय) नामक नाटक भी लिखा था। जैसा कि निम्नलिखित श्लोक से ज्ञात होता है -

           स्वस्ति पाणिनये तस्मै येन रुद्रप्रसादत:। 

        आदौ व्याकरणं प्रोक्तं ततो जाम्बवतीजयम् ।।


वास्यायन -

             इसी प्रकार बौद्ध और, जैन ग्रंथो और वास्यायन के काम-सूत्र में भी नाटकों और नटों का उल्लेख मि्ला है।


4. संस्कृत नाटकों की विशेषताएं ―


संस्कृत नाटकों के अध्ययन से तथा उनकी यूनानी नाटकों से तुलना करने से कतिपय विशेषताएं ज्ञात होती हैं | ये विशेषताएं मुख्यतया कथा, कथावस्तु समायोजन, आकार पात्र संज्ञा , रस परिपाक , उद्देश्य, नाट्य शाला - निर्माण आदि की दृष्टि से है। विशेष उल्लेखनीय विशेषताएँ ये हैं:


1. सुखान्तता 

 

भारतीय नाटकों में यद्यपि मध्य में सुख और दुख दोनों का सम्मिश्रण है। तथापि सभी नाटक सुखांत ही होते हैं। भारतीय नाटक के अनुसार पापी का वध भी सुखकर होता है।


2. रमणीय कल्पना 


  भारतीय नाटक स्वरुपतः रमणीय- कल्पना -प्रधान होते हैं। इनमें श्रृंगार और वीर रस के रोचक उपाख्यान मुख्यत: होते हैं।


3. सहगान का प्राभाव


 यूनानी नाटकों में सहशान का बहुत प्रचलन है, परन्तु संस्कृत नाटकों में इसका अत्यन्त अभाव है।


4. गद्य-पद्य का मिश्रण 

                             संस्कृत नाटकों में कथोपकथन के लिए गद्य का प्रयोग किया जाता है। रुकता, प्रकृति वर्णन नीति - शिक्षा, सुभाषित आदि के लिए पद्यों का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार गद्य और पद्य का समन्वय होता है।


5. नाटक की रचना विधि


संस्कृत - नाटकों की रचना की एक विशेष विधि है। पूरा नाटक कई अंकों में विभक्त होता है। नान्दी-पाठ से प्रारम्भ सूत्रधार द्वारा स्थापना या प्रस्तावना में कवि - परिचय, संक्षेप या कथानक को जोड़ने के लिए विष्कम्भक और प्रवेशक का प्रयोग,  भरत वाक्य की समाप्ति आदि संस्कृत -नाटकों की रचना विधि की विशेषताएं हैं।


6. नाटक का आकार 


 यूनानी नाटकों की अपेक्षा संस्कृत नाटकों का रूप बहुत बड़ा होता है। यह इस उदाहरण से जाना जा सकता है कि शूद्रक का मृच्छकटिक आकार में एस्काइलस (Aeschylus) के प्रत्येक नाटक से तिगुन्ना है।



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