मकबूल फिदा हुसैन की कहानी अपनी जुबानी आत्मकथा के शीर्षक माधुरी और मां अधूरी पर टिप्पणी

                      छायाप्रति गूगल से प्राप्त


मकबूल फिदा हुसैन की 'कहानी अपनी जुबानी' आत्मकथा का शीर्षक 'माधुरी' और 'मां अधूरी' दोनों परस्पर एक-दूसरे के उद्देश्य के पूरक भी हैं और अलग भी, जहां माधुरी में लेखक स्वयं से संवाद करते पाए जाते हैं वहीं मां अधूरी में वो कारुणिक व्यंग्य करते नजर आते हैं, माधुरी में एम एफ आर्ट और सिनेमा के बीच सामंजस्य स्थापित करते भी हैं और कहीं-कहीं आर्ट की अपेक्षा सिनेमा को कमतर बताने का प्रयास करते हैं। 

   शीर्षक की शुरुआत फिल्मफेयर अवार्ड फंक्शन से होती है जहां सिनेमा के कई दिग्गज मौजूद हैं, माधुरी दीक्षित को अवार्ड देते समय मकबूल अपनी मानसिक गतिविधि को हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं कि जिस किरदार को उन्होंने उससे पहले नहीं देखा वह विजेता! यह उनके लिए अचंभे की बात थी।

   माधुरी दीक्षित की लोकप्रियता को बताते हुए एम एफ एक दृश्य दिखाते हैं कि किस तरह लोग माधुरी के गाने और नृत्य के दीवाने हैं, उनके मस्तिष्क में कहीं न कहीं ये बात खटकती है वो माधुरी को अपनी प्रतिद्वंद्वी के रूप में पाते हैं और सिनेमा की आलोचना करते हुए स्पष्ट कहते हैं कि “आर्ट की उमर 'स्टोन एज' (पाषाण युग) के बायसन और बुल से भी लंबी है और सिनेमा तो कल की धोरी।”

   प्रतिद्वंदिता की एक मनःस्थिति होती है जब व्यक्ति अपने प्रतिद्वंदी से आगे नहीं आ पाता तो उसे अपने में मिलाने का प्रयास करता है, ठीक यही एम एफ के साथ भी होता है। एम एफ माधुरी की फिल्मों को इस कदर देखने लगते हैं कि उनके नाम से अफवाहें उड़ने लगती हैं, लोग उनके बारे में प्रेम से लेकर उनके एक सौ कैनवास में माधुरी के चित्र तक की चर्चा करते हैं। इन सबके पीछे खुद मकबूल ही थे वो खुद ही इस तरह गतिविधि करते हैं जिससे उस समय की मीडिया और अखबार को पर्याप्त मसाला मिलता है लेकिन यही बात जब माधुरी से पूछी जाती है तो माधुरी एम एफ के लिए कहती हैं कि ‘हुसेन जी मेरी पहचान नहीं करा रहे बल्कि मेरा वजूद (अस्तित्व) मनवा रहे हैं।’ ये पढ़ कर ऐसा लगता है माधुरी को एम एफ की कार्यों से नाराज़ थीं और वो नहीं चाहती थीं कि उनके बीच कोई अफवाह उड़े या तरह-तरह की बातें बनाई जाएं।

  यह तो निश्चित था कि एम एफ माधुरी से प्रभावित थे, बाद में जब वो माधुरी से मिलते हैं तो उन्हें ब्रश देते है जो उन्होंने अहमदाबाद में थियेटर देखते समय फेंका था, इस पर माधुरी मजाकिया लहजे कहती हैं, 'हुसेन जी यह ब्रश आप मेरे पास छोड़े जा रहे हैं देखना एक दिन कहीं मैं पेंटिंग ना करने लग जाऊं।' इस पर एम एफ कहते हैं, 'अगर तुम पेंटिंग शुरू करोगी तो मैं भी पीछे रहने वालों में से नहीं, एक दिन कहीं तुम पर फिल्म ना बना बैठूं।' इस पूरे संवाद में शाब्दिक प्रतिद्वंदिता के साथ एम एफ का माधुरी पर आकर्षण का भाव दृष्टिगत होता है। हुआ भी ऐसा ही वर्ष 2000 में एम एफ ने अपने निर्देशन में 'गजगामिनी' नामक फिल्म रिलीज की, जिसमें माधुरी, एसआर के जैसे बड़े अभिनेता थे। 

  एम एफ जब फिल्म बनाकर फिल्म जगत की चकाचौंध में निकलते हैं तो उनका ही प्रतिरूप जो कि पेंटर है उससे बातचीत करते हैं जिसे वे अपने ही नाम के आगे के भाग 'मकबूल' से संबोधित करते हैं और उसके माध्यम से अपने मानसिक अन्तर्द्वन्द को व्यक्त करने का प्रयास करते हैं वे ये सोचते हैं कि कहीं एक पेंटर पर एक अभिनेता विजयी तो नहीं हो गया। वो अपने ही प्रतिरूप से कहते दिखते हैं कि अगर तुम अपने ब्रश से मुझे जगाए ना रहते तो मैं बिल्कुल खो ही जाता। मतलब कि एम एफ अपनी उसी दुनिया में रहना चाहते हैं जहां वे अपने को सहज और समर्थ महसूस करते हैं।

  मां अधूरी में एम एफ अपने बचपन का बहुत ही कारुणिक चित्रण करते हैं, जहां मेले में उनकी मां उन्हें खो देती हैं और एम एफ को खोने की पीड़ा उनके लिए इतनी असहनीय रहती है कि वे वहीं अठाईस बरस की उम्र में प्राण त्याग देती हैं।

 अस्सी साल बाद जब एम एफ पढ़नपुर लौटने हैं तो अपनी मां को खोजते हैं और कारुणिक व्यंग्य कर कहते हैं कि उनकी मां उनसे शरमा रही हैं कि कैसे अठाईस साल की मां अस्सी साल के बेटे के पास खड़ी हो। मां अपने आप को बेटे के सामने अधूरी समझ रही है। अधूरी मां। इसपर लोगों का प्रत्युत्तर कि तभी बेटा माधुरी को पेन्ट किए जा रहा है मां अधूरी, पूरे संदर्भ को प्रभावित करता है। यहां एम एफ शब्दों के साथ तो खेलते ही हैं साथ ही माधुरी को अपने जीवन में बहुत अच्छी तरह से फिट बैठाते हैं, जहां एक ओर माधुरी की पेंटिंग में अपनी मां का अस्तित्व बरकरार रखते हैं वहीं दूसरी ओर माधुरी के प्रति लगाव को भी जाहिर किए रहते हैं। 

पढ़नपुर मेले का दृश्य बहुत ही कारुणिक और भावुक करने वाला है। जिसमें मां को अपने बच्चे के खो जाने का दु:ख असहनीय है।

  प्रस्तुत उद्धरण में एम एफ ने लेखक, अभिनेता, चित्रकार का अद्भुत संयोजन किया है जहां एक ही व्यक्तित्व में तीनों पात्र अपनी भूमिका बखूबी निभाते दिख रहे हैं। तीनों एक दूसरे से कभी आगे जाते हैं कभी पीछे। तीनों में आपसी प्रतियोगिता है।



 पृष्ठ पर बने चित्र भावनाओं को और अधिक तरीके से संप्रेषित करते दिखाई दे रहे हैं। निश्चित ही यह दोनों शीर्षक एक दूसरे से मिले होते हुए भी अलग-अलग हैं।


धन्यवाद!


Posted by Prakhar Sharma

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