महाकाव्य की उत्पत्ति, विकास एवं विशेषताएं
महाकाव्य
(Mahakavya)
भामह ने भामहालंकार में, दण्डी ने काव्यादर्श में, अग्निपुराण में और विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में महाकाव्य के लक्षणों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। साहित्यदर्पण में प्राप्त महाकाव्य का लक्षण सर्वांगीण और व्यापक है। विश्वनाथ के अनुसार महाकाव्य का लक्षण है—
• यह सर्गों में विभक्त होता है।
• इसका नायक देवता, कुलीन क्षत्रिय या एक वंशज कुलीन अनेक राजा होते हैं।
• श्रृंगार, वीर और शान्त रस में से कोई एक प्रधान रस होता है। और अन्य उसके सहायक ।
• इसमें सभी नाटकीय सन्धियाँ होती हैं।
• इसमें चतुर्वर्ग - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का वर्णन होता है।
• प्रत्येक सर्ग में एक छन्द वाले पद्य रहते हैं, किन्तु अन्त में छन्द परिवर्तन हो जाता है।
• इसमें इन चीजों के वर्णन रहते हैं - सन्ध्या, सूर्य, चन्द्रमा राति, प्रदोष (गोधूलिवेला), अन्धकार, दिन, प्रात: मृगया आदि।
• सर्गों के नाम वर्णित कथा के आधार पर रखना चाहिए।
सर्ग बन्धो महाकाव्यं तत्रैको नायक सुर: ।
सद्वंशः क्षत्रियो वापि धीरोदात्तगुणान्वितः ।।
उदाहरण के रूप में रामायण और महाभारत में उपर्युक्त सभी तत्वों का समावेश है। रामायण, महाभारत और रघुवंश में अनेक नायक हैं। रामायण आदि का कथानक ऐतिहासिक है।
महाकाव्यों का उद्भव और विकास
महाकाव्यों का उद्भव ऋग्वेद के आख्यान-सूक्तों, इंद्र, वरुण विष्णु और उषा आदि के स्तुति मंत्रों तथा नाराशंसी और गाथाओं से हुआ है। ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में इन आख्यानों आदि का बृहद रूप मिलता है। यही स्वरूप आगे चलकर महाकाव्य के रूप में परिवर्तित हो गया है। रामायण और महाभारत आगे चलकर परवर्ती काव्यों और महाकाव्यों के लिए उपजीव्य ग्रन्थ हो गए हैं।
रामायण और महाभारत के बाद कालिदास की उत्पत्ति तक जो महाकाव्य लिखे गए थे, वे केवल नाममात्र ही शेष हैं। कालिदास की अलौकिक प्रतिभा और व्युत्पत्ति ने सभी पूर्ववर्ती काव्यों और महाकाव्यों को निष्प्रभ कर दिया।
फलस्वरूप उनका स्वतन्त्र अस्तित्व समाप्त - सा हो गया। इस काल के कुछ ग्रन्थों के नाम ये हैं—
1. पाणिनि कृत जाम्बवती - जय या पाताल - विजय।
इसमें 18 सर्गों में श्री कृष्ण का पाताल में जाकर जाम्बवर्त के विजय और परिणय की कथा वर्णित है।
2. वररुचि ने 'स्वर्गारोहण' नामक काव्य बनाया था। इसे पतञ्जति ने वाररुचं काव्यम्' कहकर सम्बोधित किया है। समुद्रगुप्त के 'कृष्ण चरित' की प्रस्तावना में यह लिखा है।
3. महाभाष्यकार पतञ्जलि ने भी इसी श्रृंखला में 'महानन्द काव्य' लिखा है। समुद्रगुप्त ने 'कृष्णचरित' की प्रस्तावना में लिखा है कि पतञ्जलि ने योगशास्त्र की व्याख्या के रूप में ‘महानन्द' नामक काव्य लिखा।
महाकाव्यों के विकास के इतिहास को दो दृष्टि से उपस्थित किया जा सकता है—
1. रूपगत-विकास
2. शैलीगत-विकास
1. रूपगत-विकास—
इसके तीन स्तर हैं—
(क) वैदिक महाकाव्य काल—
सरल आख्यान, देवस्तुति आदि। इनमें भाव - प्रधानता है।
(ख) लौकिक-महाकाव्य-काल—
इसमें कालिदास तथा परवर्ती काव्यकार हैं। इनके काव्यों में भाव पक्ष की अपेक्षा कला तत्त्व अधिक उदात्त है।
(ग) वीर-महाकाव्य-काल—
इसमें रामायण और महाभारत है। इनमें भाव और आख्यान तत्त्वों की प्रधानता है।
2. शैलीगत विकास—
इसके भी तीन स्तर हैं —
(क) प्रनादात्मक शैली—
यह रामायण, महाभारत, कालिदास, अश्वघोष आदि में प्राप्त है। इसमें सरलता, सरसता और अर्थ- गाम्भीर्य पर अधिक बल है।
(ख) अलंकारात्मक शैली—
यह भारवि, माघ, श्री हर्ष आदि के सालंकृत काव्यों में मुख्यतया प्राप्य है।
(ग) श्लेषात्मक शैली—
यह द्वयर्थक और व्यर्थक काव्यों में प्राप्य है। इस शैली के काव्य हैं— धनंजय कृत- द्विसन्धान- काव्य, कविराज सूरिकृत – राघवपाण्डवीय, हरिदत्त सूरि कृत- राघवनैषधीय। विद्या माधव - कृत पार्वती रुक्मिणीय (ये द्वयर्थक काव्य है)। राजचूडामणि-दीक्षित-कृत– राघव-यादव- पाण्डवीय तथा चिदम्बर सुमति कृत राघव-पाण्डव-यादवीय ।
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