आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का आलोचनात्मक प्रतिमान
बहुमुखी प्रतिभा के धनी आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हिन्दी साहित्य में निबंध, आलोचना, इतिहास लेखन, उपन्यास लेखन, अन्वेषण संपादन के साथ-साथ अपने कुशल वक्तव्य और सहज-सफल अध्यापन के लिए विख्यात हैं। द्विवेदी जी की प्रतिभा को मात्र साहित्य रचनाकार की परिधि में सिमटाकर देखा गया, परन्तु उनकी आलोचनात्मक कृतियां और समीक्षा का दृष्टिकोण उनकी साहित्यिक कृतियों से किसी भी प्रकार कम नहीं है।
द्विवेदी जी को समन्वयवादी कहा जाता है परन्तु जैसा की नामवर सिंह जी लिखते हैं- “सन्तुलन समन्वय नहीं है क्योंकि यह मध्यम मार्ग नहीं है।“ द्विवेदी जी स्वयं भी संतुलन को मध्यम मार्ग नहीं कहते और न वे मध्यम मार्गी रहे हैं। उन्होंने एक संतुलित और समग्र दृष्टि का विकास किया, संतुलित दृष्टि के विषय में वे स्वयं लिखते हैं कि, “मेरा मत है कि संतुलित दृष्टि वह नहीं है जो अतिवादिताओं के बीच एक मध्यम मार्ग खोजती फिरती है, बल्कि वह है जो अतिवादियों की आवेग तरलधारा का शिकार नहीं हो जाती और किसी पक्ष के उस मूल सत्य को पकड़ सकती है जिस पर बहुत बल और अन्य पक्षों की उपेक्षा करने के कारण उक्त अतिवादी दृष्टि का प्रभाव बढ़ा है। सन्तुलित दृष्टि सत्यान्वेषी दृष्टि है। एक ओर जहाँ वह सत्य की समग्र मूर्ति को देखने का प्रयास करती है, वहीं दूसरी ओर वह सदा अपने को सुधारने और शुद्ध करने को प्रस्तुत रहती है। वही सभी प्रकार के दुराग्रह और पूर्वाग्रह से मुक्त रहने की और सब तरह के सही विचारों को ग्रहण करने की दृष्टि है।“ उपर्युक्त उद्धरण से कई बातें स्पष्ट हो जाती हैं। पहली तो ये कि संतुलित दृष्टि मध्यम मार्ग नहीं अपनाती और दूसरी संतुलित दृष्टि सत्यान्वेषी है। संतुलित दृष्टि सत्य की समग्र मूर्ति को देखने का प्रयास करती है परंतु कोई त्रुटि होने पर उसका परिशोधन करने से भी पीछे नहीं हटती। इस प्रकार द्विवेदी जो ने हिंदी आलोचना को एक सत्यान्वेषी, संतुलित और समग्र दृष्टि प्रदान की।
द्विवेदी जी लम्बे समय तक शान्ति निकेतन में रवीन्द्रनाथ टैगोर की छाया में रहे इसलिए उनके मानवतावाद का द्विवेदी जी पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनकी दृष्टि के केन्द्र में मनुष्यता रही है। अपनी कृतियों में वे जगह-जगह पर मानवतावाद की बात करते हैं- “जो साहित्य हमारी वैयक्तिक क्षुद्र संकीर्णताओं से ऊपर उठा ले जाय और सामान्य मनुष्यता के साथ एक कराके अनुभव करावे, वही उपादेय है।” साहित्य द्विवेदी जी के लिए कोरा साहित्य नहीं था। साहित्यकार कल्पनाविलासी बन कर नहीं रह सकता। द्विवेदी जी ने साहित्यकारों के ऊपर एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी। वस्तुतः वे मनुष्य-मनुष्य के बीच फैली घृणा, जाति-पांति और धर्म की दीवार और संकीर्णता की भावना से अत्यंत चिंतित थे, इसीलिए साहित्य को इस परिस्थिति से उबारने वाला रक्षक मानते थे। वे लिखते हैं “मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूं। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से बचा न सके, जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को परदुःखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।” संभवतः यही कारण था कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को कबीर के व्यक्तित्व ने अत्यंत प्रभावित किया । कबीर की भी मुख्य चिंता में मानव विद्यमान था। कबीर ने भी झूठे पाण्डित्य का विरोध किया,ऐसा ही आग्रह द्विवेदी जी का भी था। द्विवेदी जी ने सैद्धांतिक और व्यवहारिक दोनों प्रकार की आलोचनाएं लिखी हैं। सैद्धांतिक आलोचनाओं में उनका साहित्यिक दृष्टिकोण, वैचारिक समीक्षा और गंभीर चिंतन आते हैं। साहित्य को उन्होंने एक नवीन दृष्टिकोण प्रदान किया। ऐतिहासिक पद्धति, नव मानवतावाद और सामाजिक दृष्टिकोण उनके आलोचनात्मक व्यक्तित्व और कृतित्व की विशेषताएं है। साथ ही द्विवेदी जी की आलोचना पद्धति में प्राचीन आलोचना पद्धति के अनुभवों से सीखने-समझने व अपने को समृद्ध करने का आग्रह है- “मुझे यह समझ में नहीं आता कि आधुनिक समालोचन पद्धति क्यों नहीं पुराने अनुभवों से अपने को समृद्ध कर सकती। नवीन परिस्थितियों के अनुसार पुराने अनुभवों का प्रयोग सर्वत्र हितकर होगा- जीवन में भी और साहित्य में भी।”
हिंदी भाषा साहित्य के अंतर्गत उन्होंने प्रांतीय सीमाओं को स्वीकार नहीं किया अपितु एक अखिल भारतीय दृष्टि प्रदान की इसी अखिल भारतीय या वैश्विक दृष्टि के कारण ही द्विवेदी जी संस्कृति की विशुद्धता को अस्वीकार करते हैं। उनका मत था कि यदि हिंदी साहित्य का अध्ययन करना है तो प्रांतीय भाषाओं के साहित्य का भी अध्ययन करना होगा, यही बात उन्होंने प्रांतीय भाषाओं के साहित्य अध्ययन पर भी लागू की। स्पष्ट है यह वैश्विक और समग्र दृष्टि रवींद्रनाथ टैगोर के प्रभाव से विकसित हुई द्विवेदी जी में आकर इस दृष्टि और मानवतावाद का और अधिक विस्तार हुआ।
व्यवहारिक आलोचना में द्विवेदी जी ने कबीरदास, सूरदास तुलसीदास, नानक, दादू, सुन्दरदास, नन्ददास, रज्जब आदि के व्यक्तित्व और कृतित्व का मूल्यांकन किया है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण काम इनका ‘कबीर’ पर है। कबीर जैसे व्यक्तित्व पर हजारी प्रसाद जी ने 1942 ई० मे प्रथम स्वतंत्र आलोचनात्मक पुस्तक लिखी। 1942 तक कबीर हिन्दी साहित्यालोचकों की दृष्टि में उपेक्षित ही रहे। द्विवेदी जी से पूर्व किसी आलोचक ने कबीर के कवित्व पर बातचीत नहीं की थी। सर्वप्रथम द्विवेदी जी ने कबीर के उपेक्षित व्यक्तित्व को प्रतिष्ठा दिलायी। इस बात में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि आज आधुनिक युग में 'कबीरदास पर चाहे जितने आलोचनात्मक ग्रंथ लिखे जायें, हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के 'कबीर' सदैव उन सब पर भारी पड़ेंगे। जिस भाषा को सधुक्कड़ी और पंचमेल खिचड़ी की संज्ञा दी गई, कबीर की उसी भाषा के विषय में द्विवेदी जी लिखते है, “भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा दिया। बन गया तो सीधे-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार- सी नजर आती है। उसमें मानों ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फरमाइश को नाहीं कर सके। और अकह कहानी को रूप देकर मनोग्राही बना देने की तो जैसी ताकत कबीर की भाषा में है वैसी बहुत कम लोगों में पाई जाती है।” ध्यान देने योग्य बात यह है कि द्विवेदी जी कबीर के संतुलन की प्रशंसा करते हैं किन्तु उन्हें सर्वधर्म समन्वयकारी समाज-सुधारक नहीं मानते। यहां भी वही बात लागू होती है कि संतुलन समन्वय नहीं है। द्विवेदी जी कबीर पर सहजयानी सिद्धों और नाथपंथी योगियो, सहजयानी सिद्धों के अक्खड़पन को तो स्वीकार करते हैं परंतु कबीर की महत्ता उनके अक्खड्पन में नहीं मानते। कबीर का महत्व मानव-मानव के रागात्मक सम्बन्ध के उद्घाटन में था। द्विवेदी जी लिखते हैं- “सफलता महिमा की एकमात्र कसौटी नहीं है…. जातिगत, कुलगत, धर्मगत, संस्कारगत, विश्वासगत, शास्त्रगत, संप्रदायगत बहुतेरी विशेषताओं के जाल को छिन्न करके ही वह आसन तैयार किया जा सकता है जहां एक मनुष्य दूसरे से मनुष्य की हैसियत से ही मिले। जब तक यह नहीं होता तब तक अशान्ति रहेगी, मारामारी रहेगी, हिंसा-प्रतिस्पर्धा रहेगी। कबीरदास ने इस महती साधना का बीज बोया था। फल क्या हुआ, यह प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है।" हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर ही नहीं सूर-तुलसी, प्रेमचंद आदि का मूल्यांकन भी इसी मानवतावादी दृष्टि से किया है। त्याग, संयम, मनुष्यता, प्रेम इनकी आलोचना के आधार हैं। द्विवेदी जी के मानवतावाद में मानव जीवन को पाशविक वृत्तियों से निकालकर उसे प्रेम, शान्ति, और समानता से परिपूर्ण करना है। जहाँ एक मनुष्य दूसरे से मनुष्य की हैसियत से मिले।
निष्कर्षतः द्विवेदी जी ऐतिहासिक दृष्टिबोध के प्रतिष्ठापक एवं मानवतावादी आलोचक हैं। उनकी दृष्टि ऐतिहासिक-सांस्कृतिक चेतना से अनुप्राणित है। साहित्य की विकास यात्रा को समझने के लिए वे परम्परा को महत्व देते हैं, परन्तु कहीं भी इसमें गतिहीनता का अवरोध नहीं है। साहित्य इतिहास को उन्होंने एक नवीन दृष्टि प्रदान की तथा उनमें जो त्रुटियां थी उन्हें साहस के साथ अस्वीकार किया। नामवर सिंह उनकी परम्परा को लोकोन्मुख प्रगतिशील परम्परा नाम देते हैं। वे ठीक ही लिखते हैं- “यदि हजारीप्रसाद द्विवेदी के कबीरदास बहुत कुछ को अस्वीकार करने का अपार साहस लेकर अवतीर्ण हुए थे तो 'कबीर' के हजारीप्रसाद में भी यह साहस कम नहीं है।”
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