महादेवी वर्मा के गीतों में अन्तर्निहित वेदना तत्व
महादेवी वर्मा के गीतों में अन्तर्निहित वेदना तत्व
छायावाद
के विशाल मंदिर की वीणापाणि महीयसी महादेवी वर्मा 20 वीं शताब्दी के हिन्दी
साहित्य की सर्वाधिक प्रतिष्ठित कवयित्री हैं। इनके गीतों में अन्तर्निहित वेदना
हिन्दी- साहित्य की सर्वोत्कृष्ट निधि है। यद्यपि महादेवी वर्मा के वेदना उद्गम
के विषय में निश्चित रूप से कुछ कहना संभव नहीं है, परंतु महादेवी की वेदना
अनुभूतिजन्य होने के कारण, उनके गीतों में इसकी अभिव्यक्ति अत्यंत सहज ढंग से हुई
है। महादेवी के लिए वेदना शक्ति है। 'यामा' की भूमिका में महादेवी लिखती हैं- "हमारे
असंख्य सुख हमें चाहे मनुष्यता की पहली सीढ़ी तक भी न पहुँचा सके, किंतु हमारा एक
बूँद आंसू भी जीवन को अधिक मधुर, अधिक उर्वर बनाए बिना नहीं गिर सकता।"
महादेवी
वर्मा बौद्ध दर्शन के दुःखवाद से अत्यंत प्रभावित थी। इसी बौद्ध दर्शन ने महादेवी
के वेदना भाव के लिए आध्यात्मिक भावभूमि का निर्माण किया। वेदना इनकी प्रिय सहचरी
बन गई थी–
'प्रिय
जिसने दुख पाला हो।
वर दो
यह मेरा आंसू उसके उर की माला हो।'
संसार
की नश्वरता से उत्पन्न वेदना भी महादेवी के गीतों का विषय रही है। संसार की क्षण
भंगुरता उनकी वेदना को बढ़ा देती है। यहां भी बुद्ध के विश्व मंगल की कामना से उद्भूत
दुःखवाद का प्रभाव ही परिलक्षित होता है-
"जब
न तेरी ही दशा पर दुःख हुआ संसार को
कौन रोयेगा सुमन हमसे मनुज निःसार को।"
महादेवी
के अनुसार वेदना जीवन का ऐसा तत्व है, जो समस्त विश्व को एक सूत्र में बांधने की
क्षमता रखता है। महादेवी के अनुसार व्यक्तिगत वेदना विश्ववेदना में धुलकर जीवन को
सार्थकता प्रदान करता है। परंतु यह वेदनाकर्म शक्ति को कुंठित करने वाला नहीं है,
अपितु इसमें दूसरो के हित की प्रबल आकांक्षा है–
“मैं
नीर भरी दुःख की बदली
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय
इतना इतिहास यही,
उमड़ी
कल थी मिट आज चली।“
वे
वेदना के द्वारा अपने जीवन को शक्ति प्रदान करती हैं। उनका मानना है वेदना के
द्वारा मानवता को सुखी तथा समृद्ध बनाया जा सकता है–
“चिर
ध्येय ही जलने का
ठंडी विभूति बन जाना
है
पीड़ा की सीमा यह
दुःख
का चिर सुख हो जाना।”
वस्तुतः
महादेवी वर्मा की वेदना दो भाव भूमियों पर आधारित है – आध्यात्मिक भावभूमि और
मानवतावादी भावभूमि । वेदना का आधिक्य उन्हें आध्यात्म का आश्रय दिलाता है। वेदना
की दूसरी आधार भूमि मानवतावादी है। सांध्यगीत और दीपशिखा में उनकी वेदना मानव मात्र
के प्रति करुणा का रूप ले लेती है। ‘दीपशिखा’ संग्रह की ये पंक्तियां दृष्टव्य
हैं-
“इन
आँखों के रस से गीली !
रज भी
है दिव से गर्वीली!
मैं
सुख से चंचल दुख-बोझिल
क्षण-क्षण का जीवन जान चली!
मिटने को कर निर्माण चली!”
महादेवी
की वेदना दृढ़-आत्म विश्वास प्रदान करने वाली है, जिसके बल पर संसार की समस्त बाधाओं
से जूझा जा सकता है –
“और
होंगे चरण हारे,
और
हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे,
दुखव्रती
निर्माण उन्मद, यह अमरता नापते पग
बाँध
देंगे अंक-संसृति से तिमिर में स्वर्ण वेला !”
महादेवी
की दृष्टि में वेदना तभी सार्थक है, जब वह इस स्थिति के निराकरण के लिए कटिबद्ध हो-
“आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी।”
हिन्दी
आलोचकों ने महादेवी की वेदना को अन्तर्मुखी वैयक्तिक अनुभूतियाँ कहा और उन्हें
पलायनवादी भी कहा। परंतु उनकी वेदना केवल व्यक्ति ही नहीं अपितु समष्टि को भी
समेटे हुए है। साथ ही उनके गीतों में केवल वेदना निराशा नहीं है अपितु वह
निर्माणोन्मुख है। रामविलास शर्मा, ‘परंपरा के मूल्यांकन’ में लिखते हैं- “उनकी कविता का
परिचय केवल ‘नीर भरी दुख की बदली’ या ‘एकाकिनी बरसात’ कहकर नहीं दिया जा सकता।
उन्हीं के शब्दों में उनका परिचय देना हो तो मैं यह पंक्ति उद्धृत करूंगा-‘रात के
उर में दिवस की चाह कर शर हूं।” इस प्रकार कहा जा सकता है कि वेदना महादेवी के जीवन पथ की क्षणिक
अनुभूति नहीं है, अपितु उनकी सम्पूर्ण साहित्य साधना का मूलाधार है। उनके गीतों
में वेदना का व्यक्तिगत रूप मिलता है तो समष्टिगत रूप भी। एक ओर उनके गीतों में
वेदना के लिए आध्यात्मिक भावभूमि है तो दूसरी ओर मानवतावादी दृष्टिकोण भी
परिलक्षित होता है। महादेवी
वर्मा ने अपने गीतों में वेदना को प्रमुख स्थान दिया है और इस वेदना का वरण
उन्होंने स्वयं किया है। उनकी वेदना प्राणिमात्र के प्रति करुणा का रूप धारण करती
है। उनके गीतों में वेदना की परिणति आनंद में होती है और वह नई आशा का संचार करती
है।
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